सम्पादकीय – फेल शब्द भी अपने आप में एक महामारी

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नीरज कुमार

सम्पादकीय
31 जुलाई 2020
सम्पादकीय – फेल शब्द भी अपने आप में एक महामारी
कोई शब्द कितना अपने आप में कठोर हो सकता है। वह भी सिर्फ बच्चों की प्रतिभा और उनके वर्षभर का आंकलन करने के लिए आवश्यक भी है। जी, हांॅ मैं बात कर रहा हूॅं फेल शब्द की। उन अभिभावकों पर भी क्या बीतती होगी, जब उन्हें यह शब्द अपने बच्चे के द्वारा या फिर किसी ओर के द्वारा पता चलता होगा। अनायास ही एक सिर झुकाने वाला भाव उनके मन मस्तिष्क पर अंकित हो जाता है। इसकी कठोरता का आभास भी हो जाता है। भले ही सांत्वना के बतौर कहने वाला यह क्यों न कह दें कि कोई बात नहीं, अगली बार खूब प्रयास करना, खूब मेहनत करना। लेकिन जो टीस का भाव बच्चे के मस्तिष्क पर पड़ता है उसे वह अपनी पूरी लाईफ में भूल नहीं सकता। इसी को दृष्टिगत रखते हुए पहली बार एक महत्वपूर्ण परिवर्तन किया गया है। जिसे सभी राज्य सरकारें भी उसका अनुकरण करें तो यह शिक्षा जगत में परिवर्तन के लिए मील का पत्थर साबित होगा। पहली बार केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) ने 12 वीं का परीक्षा परिणाम घोषित करते समय एक महत्वपूर्ण परिवर्तन किया है-अंक तालिका में फेल शब्द के स्थान पर एसेंशियल रिपीट शब्द लिखा गया है। यानि आवश्यक दोहराव जिससे ना बच्चों में हीन भावना आएगी और ना ही वे सर झुकाने जैसी अवस्था को प्राप्त होंगे। स्वतंत्रता पश्चात शिक्षा-क्षेत्र में अब तक के निर्णयों में यह सबसे महत्वपूर्ण, मानवतावादी और गरिमायुक्त निर्णय है। किन्तु फेल शब्द केवल इसी बार के लिए हटाया गया है अथवा हमेशा के लिए, यह अभी स्पष्ट नहीं है। यदि यह कोरोना महामारी के कारण उठाया गया कदम है तो भी इस पर विचार कर फेल शब्द को हमेशा के लिए हटा देना चाहिए क्योंकि फेल शब्द भी एक अपने आप में एक महामारी ही है जो अनेकानेक प्रतिभाओं को हर साल परीक्षा-फल घोषित होने के बाद निगल जाती है। इस कालखण्ड में हमें समाचार-पत्रों में रिजल्ट के कारण आत्महत्या करने के समाचार मिलते रहते है। जिस पर रोक लगाने में श्एसेंषियल रिपीटश् की महती भूमिका होगी। बच्चों के उज्जवल भविष्य के लिए फेल शब्द का परीक्षा फलध्रिजल्ट के पन्नों से विदा होना एक क्रांतिकारी कदम सिद्ध होगा। वर्ष पर्यंत किये गए श्रम का मूल्यांकन केवल तीन घंटे की लिखित परीक्षा के आधार पर कर देना भी कोई वैज्ञानिक पद्धति नहीं है। परंतु इसमें परिवर्तन करना अभी दूर की कौड़ी है। इसमें भी सुलेख, आगे पीछे वाले से थोड़ी बहुत पूछताछ का अवसर, याद किये गए प्रश्नों का ही आ जाना, शिक्षक द्वारा बनवाए गए नोट्स में से प्रश्न-पत्र का मेल खा जाना, स्कूल में पढ़ाने वाले शिक्षक की गुणवत्ता और कहीं-कहीं नकल का चल जाना आदि कारकों का भी महत्वपूर्ण योगदान होता है। किन्तु हमारे तंत्र को तो दो ही शब्द भा गए हैं-फेल या पास। चूँकि पास होने वाले नौकरी भी मांगेंगे इसीलिये उनमें फिर से श्रेणी विभाजन। यहाँ भी तृतीय श्रेणी वालों को लगभग अछूत जैसा ही माना जाता है। अगर मैं यह कहूॅ कि उसे भी फेल की श्रेणी के आस-पास माना जाता हैं तो कोई अतिश्योक्ति न होगी। उन्हें हेह्य (हेय) दृष्टि से देखा जाता है। अब तो स्थिति यहाँ तक पहुँच गई है कि 60-65 प्रतिशत प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों में से भी अधिकांश के माता-पिता विशेष प्रसन्नता व्यक्त नहीं करते। इसमें उनका भी कोई कसूर नहीं है। समाज में वातावरण ही इस तरह का निर्मित हो गया हैं कि प्रतिषत को ही वर्तमान में आधार माना गया है। कोई भी यह नहीं पूछता कि पास हो गए। बच्चों और उनके अभिभावकों से सीधा संवाद होता है क्या? परसेंटेज बनें या कितने आये। अक्सर देखा गया हैं कि सोषल मीडिया पर अपनी प्रतिक्रिया देने में भी यूजर जल्दबाजी करते है। परंतु रिजल्ट जैसे महत्वपूर्ण विषय पर वे अपने विचार व्यक्त करने में हाथ तंग कर लेते है। मैंने सोषल मीडिया पर भी नजरें दौडाई उनमें ऐसी कोई पोस्ट देखने में नहीं आई जिसमें 70-75 प्रतिशत से कम वाले को भी कोई बधाई देता हुआ नजर आया हो। बच्चों के मूल्यांकन की निर्मम पद्धति ने समाज को भी इतना निष्ठुर बना दिया है कि अब उन्हें 80-90 प्रतिशत से कम पर बधाई देने-लेने में भी संकोच होता है। प्रथम श्रेणी में भी यह प्रतियोगिता 100 प्रतिशत तक पहुँच चुकी है, अब इसे और कहाँ तक ले जाओगे? 90-100 प्रतिशत लाने वाले भी हमारे गौरव हैं, उनका अभिनन्दन है किन्तु जिन लोगों में लिखित के स्थान पर मौखिक रूप से विषय संपादन की अधिक क्षमता है उनका क्या? परीक्षा और परिणाम दो ऐसे कठोर शब्द हैं जिनके भय से बड़े-बड़े भी कम्पित हो उठते हैं। फिर फूल से कोमल बच्चों के मानसिक चित्त की दशा का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। पिछले कुछ वर्षां में ऐसा कोई वर्ष नहीं बीता जब फेल होने के अवसाद में बच्चों ने आत्महत्या न की हो। कुछ प्रकरणों में आत्महत्या करने के दस-बीस दिन पश्चात् वही बच्चे पुनर्मूल्यांकन में बहुत अच्छे अंकों से उत्तार्ण भी हुए हैं किन्तु फेल शब्द इतना भयानक और वीभत्स है कि उसका आभास मात्र बच्चों के मानसिक चित्त को क्षत-विक्षत करने के लिए पर्याप्त है। अँग्रेजों ने औपनिवेशिक देशों में अपना राजकाज चलाने के लिए एक शिक्षा व्यवस्था बनाई थी, उस व्यवस्था में जो पास होते थे उन्हें वे अपने यहाँ नौकरी पर रख लेते थे, किन्तु स्वतंत्र भारत में फेल की परिभाषा ही कुछ अलग है। सवाल यह उठता हैं कि क्या जो फेल हो गया वो अब किसी काम का नहीं रहा या वर्ष भर पढने वाले को तीन घंटे में न लिख पाने के कारण फेल घोषित करने का औचित्य समझ से परे है। कितने ही उदाहरण हैं जिनमें हमारी शिक्षा व्यवस्था से फेल का प्रमाण पत्र लेने वालों ने इसी देश में सर्वोच्च पदों पर पहुँचने का कीर्तिमान रचा। वर्तमान में ऐसे कई उदाहरण है परंतु ऐसे उदाहरण सुनने में कम मिलते हैं और उनको किसी भी तरह से प्रचारित इसलिए भी नहीं किया जाता, क्योंकि अक्सर देखा गया हैं कि उस असफलता को हॅसी-ठिठौली के रूप में लिया जाता है। इस ओर भी ध्यान दिया जाना चाहिये कि समाज में ऐसे लोगों के उदाहरण दिये जाने चाहिये जिससे जागृति बढे़गी और बच्चों का उत्साहवर्द्धन भी होगा। पुनः केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) बधाई का पात्र हैं जिसने देर से ही सही बच्चों और अभिभावकों के हित में फेल को विदा कर एसेंशियल रिपीटश् को स्थान देकर अनुकरणीय कार्य ही नहीं किया वरन् कईयों के प्राण बचाने में भी महती भूमिका अदा की है। बस इल्तिजा यही है कि इसे स्थायित्व प्रदान कर प्रतिभाओं को निखरने मदद करें।


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